Monday, August 27, 2007

टीआरपी टेम्पल

खबर फैल चुकी है मीडिया के गलियारों में
कि एक टीआरपी का मंदिर है,जहां सजदा करने से
किसी भी प्रोग्राम की टीआरपी अच्छी आती है
जिस टीआरपी के लिए चैनल के बादशाह
कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं.
किसी भी हद तक गुजरने और गिरने के लिए तैयार रहते हैं
अगर वही टीआरपी सिर झुकाने से आ जाएं तो खबर अच्छी है
खबरियां रिपोर्टर इस मंदिर की तलाश में अपना पूरा नेटवर्क इस्तेमाल कर रहे हैं
चैनल के बॉस इस मंदिर की तलाश के लिए अपने रिपोर्टर की रोज क्लास लेते हैं कि
अभी तक वो मंदिर मिला क्यों नहीं, रोज इधर उधर के मंदिर के बारे में स्टोरी ले के आ जाते हो
सारे रिपोर्टर परेशान हैं कि क्या करें, कहां से लेके आएं टीआरपी मंदिर।
खैर मुझे तो पता है, लेकिन मंदिर के पुजारी ने पता बतानें के लिए मना किया है।

Wednesday, August 22, 2007

गाली दो वाहवाही लो...

कल मैंने कवियों को गाली लिखा बहुत वाहवाही मिली
एक लेख में मैंने कई साहित्यकारों को खरी खोटी सुनाई बहुत वाहवाही मिली
इश्कबाज चिट्ठाकारों की भी कलई खोली थी खूब वाहवाही मिली
लेकिन कई बार मैंने देश के बारे में, समाज के बारे में सुधार की बात लिखी किसी ने नहीं पढ़ा
लगता है लेखक और साहित्यकार बंधुओं को गाली देना ही उनकी तारीफ समझी जाती है
भाई गाली देने और लेने से टीआरपी तो बढ़ती ही है। लेते रहो....देते भी रहो।

Tuesday, August 21, 2007

एक पैर का नाच

शहर के बीच चौराहे की फुटपाथ पर जमा थी भीड़
चल रहा था एक पैर का नाच
लोग टकटकी लगाये देख रहे थे उस सोलह साल की लड़की को
जो फिल्मी धुन पर दिखा रही थी एक पैर का नाच
नाच का ये तमाशा दिखा रही लड़की बहुत सुन्दर थी
किसी गांव की गोरी की तरह
घुंघरुओं की छनक के साथ धड़क रहा था वहां पर खड़े कितने नौजवानों का दिल
जिनकी नजर पैरों पर कम....उसके गदराये जिस्म पर टिकी थी
एक पैर के इस नाच पर खूब वाहवाही भी मिल रही थी और तालियां भी बज रही थी
बीच बीच में आवाज भी आ रही थी.. जियो छम्मक छल्लो...
पूरे एक घंटे बाद नाच बंद हो गया
कितने लोगों के हाथ अपने अपने जेब में गये
जिनकी जेब से सिक्के निकले उन्होंने जमीन पर बिछे कपड़े पर उछाल दिए
जिनकी जेब से नोट निकली वो कुछ सोचने के बाद आगे बढ़ गये।
सब लोगों के जाने तक मैं वहां खड़ा रहा
मैंने उस लड़की से पूछा तुम्हारा पैर कैसे कट गया
उस लड़की की आंखे नम हो गई थी
उसने मेरी तरफ देखा
कुछ देर बाद बोली
एक ट्रेन एक्सीडेंट में मेरे मां बाप मर गये है और मेरा पैर कट गया था
वो रोने लगी थी....ढाढस के दो शब्द मैंने भी बोले थे
तीन दिन बाद मैंने शहर के दूसरे चौराहे पर भी एक पैर का नाच होते देखा था।

Monday, August 20, 2007

रड़ुआ रिपोर्टर...

इस प्रजाति की खास बातें....
रड़ुआ रिपोर्टर 8 घंटे की ड्यूटी को 12 घंटे तक करता है
क्योंकि उसे घर जाने की चिंता कम होती है।
और अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस को देना चाहता है
ऐसे में किसी भी न्यूज सेंटर का बॉस उससे खुश रहता है।
मीडिया जगत में ऐसे लोगों का परिवार बढ़ता जा रहा है
बॉस के घर पर होने होने वाली कॉकटेल पार्टी में
ऐसे ही लोगों को बुलाया जाता है जो रणुआ हैं।
और जब चढ़ता है शुरुर तो सब एक दूसरे की खोलते हैं पोल
और बॉस खुश हो जाते हैं इन रड़ुआ रिपोर्टरों की बयान बाजी से
मसाला मिल जाता है.....दो चार दिन तक किसी न किसी की.....।

ऑफिस में आने वाली हर नयी लड़की रिपोर्टर
जज्बा पैदा करती है रड़ुआ रिपोर्टर के अंदर
होड़ लगती है उसके साथ चाय पीने के लिए
कोई हार जाता है, कोई जीत जाता है
लेकिन जो जीता वही सिंकदर
लोगों की नाक में दम करने वाले ये रिपोर्टर
इसी ....के चौखट पर आकर अक्सर खुद की खबर बना लेते हैं।

रड़ुआ रिपोर्टर दो तरह के होते हैं
एक जूनियर एक सीनियर
सीनियर अक्सर अपने जूनियर की खबर रखता है
वह नौकरी के अलावा कई मामले में उसे अपना प्रतिद्वंदी मानता है
आखिर वो ज्यादा जवान होता है भाई......
और अक्सर इसी के चक्कर में जूनियर की बेवजह लगती रहती है।


नोट-
1-रड़ुआ रिपोर्टर आजकल समाज में बदनाम होते जा रहे हैं......लोग उन्हें बेहद आवारा समझने लगे हैं. कोई अपनी बेटी उनके हवाले नही करना चाहता। इस लिए रिपोर्टर के आगे रड़ुआ शब्द हटने की उम्मीदे कम होती जा रही हैं।

2-ये सब मुझे एक रड़ुआ रिपोर्टर दोस्त ने लिखने के लिए मजबूर किया है जिसके सिर पर चांद बन गया है।

Thursday, August 16, 2007

खलबली

सत्य के शब्दों का सेंसेक्स जब बढ़ता है तो लोगों में खलबली पैदा हो जाती है।
खलबली पैदा हो जाती है उन रसूखदार लोगों में जो कभी गये थे वेश्या के कोठे पर
उन्हें याद आने लगती हैं वो गलियां जहां डरते डरते रखा था उन्होंने कदम।
सत्ता के गलियारों से लेकर, खबरों के बाजार में एक डर पैदा हो जाता है
फोन पर की गईं वो सारी बातें याद आती हैं जो किसी कॉलगर्ल से रात रात भर हुई थी।

डर उन्हें भी लगता है जिन्होंने नोट की गड्डियों के बदले
झोपड़ों की उस बस्ती पर बुलडोजर चलवाया था
डर उन्हें भी लगता, जिन्होंने धमाकों के साथ शहर में
मांस के लोथड़ों को हवा में उड़ाने का जिम्मा लिया था
सब डरने लगते हैं सत्य के शब्दों से कि पता नही कौन कब उगल दें।

जिस्म के बाजार में जिस मासूम का दाम लगाया गया था
तब उसकी याददाश्त चली गई थी
उसको बेचने वालों को सुकून मिला था, कि सारे सबूत खत्म हैं
लेकिन दो साल बाद उसकी याददाश्त वापस आ गई है
अब वो मासूम समझदार भी हो गई है
लेकिन उसको बेचने वाले डरने लगे हैं उसके मुंह खोलने से।

खलबली है खलबली.......

Wednesday, August 15, 2007

60 साल की स्वतंत्रता

पी के गायेंगे आजादी के गाने
जवानी के जोश में आज कुछ मेरे दोस्तो ने मुझे ये मैसेज किया है।
आज उन सब की छुट्टी है, कोई आईटी सेक्टर में है, तो कोई बिजनेस करता है
सबके सब आज फुरसत में हैं,
सबके सब पी कर मनाना चाहते हैं
आज 60 साल की स्वतंत्रता
आजादी के दीवानों ने 60-70 साल पहले
सूखते हलक, से दिया था आजादी का नारा
हम आजाद हुए, इतने आजाद कि दारु से तर करते हैं अपने गले को
और ब्रांडेड शराब की बोतलों के साथ मनाते हैं. आजादी का जश्न।
दो दिन पहले से ही खरीद कर रख ली गई हैं शराब की बोतलें।
अब ये रोज के मानसिक दबाव को सुकून देने का जश्न होगा
या एक दिन की आजादी का जश्न
या 60 साल की स्वतंत्रता का जश्न।

Monday, August 13, 2007

मरने के बाद.....

वो एक चैनल की रिपोर्टर थी
वो मर गई,
रिपोर्टिंग करने दौरान वो एक दुर्घटना में मरी
लोगों ने उसे शहीद बना दिया।
वो लोग जो कल तक
उस महिला रिपोर्टर के बारे में अश्लील बातें करके थे
हलक में दारु डालने के बाद, उसकी निजी जिंदगी में झांकते थे।
आज उन्हीं लोगों को मैंने उस शहीद को श्रद्धांजली देते सुना है।
वो जिंदा थी तो लोगों की नजर में वो आवारा थी
मर गई तो उन्हीं लोगों की नजर में वो बेचारी थी।
उसके मरने की खबर आते ही रात को 9.30 बजे
उसके जानने वाले और उसके बारे में जानने वालों ने
बीवी का बिस्तर छोड़कर, लोगों को फोन पर बताया था
कि यार वो मर गई। फोन पर उसके मरने की बातें
हंसते हंसते बताई गई थी।
लोगों ने अपने सारे जरुरी काम छोड़कर
इस आकस्मिक दुर्घटना को तवज्जों दिया था।
लोगों ने ये भी कहा था, वो जैसी थी उसे वैसी ही मौत नसीब हुई
लेकिन वो जैसी भी थी, मेरी तरफ से उसको श्रद्धांजली।
मरने के बाद वैसे सभी लोग अच्छे हो जाते हैं।

बजाते रहो....

जवाब की होड़ में एक दूसरे की बजाते रहो

एक दफ्तर है, अलग- अलग डेस्क हैं
एसाइनमेंट डेस्क,एडीटोरियल डेस्क,कापीराइटर डेस्क
सब की एक दूसरे से ठनी रहती हैं
कब किस पर कौन चढ़ बैठे
डायरेक्ट एक दूसरे का नाम लेकर कोई पंगा नही लेता
सब ने एक दूसरे का रोमांटिक नाम रख रखा है,
मुझे पता है लेकिन लिखूंगा नही, लोग नाराज हो जाते हैं।
कोने में बैठकर,फुरसत में सब एक दूसरे की
बजाते रहते हैं,बातों बातों में ही बजाते रहते हैं।
इस ऑफिस में इधर एक तब्दीली आई है
पहले इन लोगों की बॉस बजाते थे
अब ये आपस में एक दूसरे की बजाते रहते हैं।

एक प्रदेश है,
एक सरकार है,
सरकार चलाती हैं मायावती
मायावी मायावती,
जब जब उनकी सरकार आती है
वो भी अपने विपक्षियों की बजाती रहती है
शायद वो बजाने के लिए ही मुख्यमंत्री बनती हैं।

अब तो ब्लॉग पर बजाने वालों की कमी नही है
अब इनका परिवार ब्लॉग पर
बिना किसी परिवार नियोजन की व्यवस्था के बढ़ता जा रहा है।
सब एक दूसरे की बजाने पर तुले हैं
कुछ लोगों ने तो कुछ साहित्यकारों, कवियों, चिट्ठाकारों की
बजाने के लिए ही ब्लॉग बनाया है
और जब जब मौका मिला है, लोगों की बजाया है।
बजाते रहों.....RED FM 93.5

पेट में कब्रिस्तान

इस पापी पेट में जो भी जाता है, दफ्न हो जाता है
मुर्गे, बकरे और न जाने क्या क्या

झोपड़ों की उस बस्ती में जब आग लगी थी
जब सब कुछ जल गया था,
मासूम से चेहरे तब्दील हो गये थे मांस के लोथड़े में
कितनी गर्भवती महिलाओं के पेट में ही दफ्न हो गयी थी अजन्मी औलाद
तब भी कई पेट कब्रिस्तान बन गये थे।

कल ही मेरे मोहल्ले में एक नाबालिक लड़की ने आत्म हत्या की थी
कारण था वो बिन ब्याही मां बन गई थी,
बदनामी के डर से उसने भी पेट को कब्रिस्तान बना डाला

सियासत के चौराहे पर
जब जलाया गयी थी एक मसाल
जिसमें कसम खायी थी देश के दुश्मनों ने
कि वो किसी को चैन से जीने नही देगें
तब से आज तक होते रहे हैं बम के धमाके और
हवा में उड़ते रहे हैं पूरे के पूरे जिस्म टुकड़ो में तब्दील होकर
जिनका नाम और पता आज तक उनके घर वालों को नही मिला
क्योंकि सियासत के पहरेदारों के पेट में भी है एक कब्रिस्तान
जहां दफ्न हो जाते है खूनी सियासत के सारे सबूत।

Friday, August 10, 2007

चैनल का चौराहा

दस बजते ही उस चौराहे पर
जमा होने लगती है भीड़
सुबह ऐसे स्ट्रगलर की
जो बनना चाहते हैं इलेक्ट्रानिक मीडिया के जर्नलिस्ट और
रात को दारु पीने के लिए ऐसे नौकरी पेशा लोगों की
जो इलेक्ट्रानिक मीडिया के जर्नलिस्ट बन चुके हैं
सुबह चाय की चुस्की और रात को किसी के नाम जाम
गजब है चैनल का चौराहा
दिन में भी गुलजार
रात में भी गुलजार
एक चाय और एक सिगरेट के कश से
इस चौराहे पर किसी भी सनसनीखेज खबर की
पंच लाइन, प्रोमो और स्टिंग बनते हैं जो
पूरे देश में सनसनी फैला देते हैं।
लेकिन ये चौराहा रहता है जस का तस
आज कल इस चौराहे पर चैनल के बॉस भी बैठकी लगाते है
कई चैनल के बॉस एक साथ, एक दूसरे का दुख बांटने
या फिर अपने नीचे काम करने वाले लोगों की खबर लेने के लिए
चाय वाला अक्सर बॉस लोगों को गाली देता होगा
क्योंकि उसका धंधा चौपट हो जाता है, ग्राहक कम हो जाते हैं।
सुना है चैनल के इस चौराहे पर
आज कल खुफिया विभाग की नजर है
क्योंकि वहां अब दलाल भी इकट्ठा होते हैं।

Monday, August 6, 2007

एक गोरिया थी...

मेरे गांव में एक गोरिया थी.....
नाम था उसका सावित्री....
चेहरे से गोरी गोरी थी....
इस लिए लोग उसे गोरिया कहने लगे थे..
लम्बी थी सुन्दर थी..

एक साल पहले ही वो नई नवेली दुल्हन बन कर आई थी
गांव में वो औरतों के बीच चर्चा का विषय थी...
एक गरीब घर में ब्याह कर आई थी।
धीरे धीरे वो गांव के लौडों की भी नजर में बस गई थी
जिस घर में वो ब्याह कर आई थी...
ठीक उसी घर के सामने पुराने जमाने के जमींदार कहे जाने वाले
लड़को का घर भी था।
अब उनके घर के जवान लड़को की नजर गोरिया पर थी
गोरिया का पति समझ रहा था कि उसकी बीबी
पर अब जमीदारों की नजर पड़ गई है
वो अपनी बीवी को घर से निकलने नही देता था
लेकिन एक कमरे के घर में छिपा भी नही पाता था
और एक दिन गोरिया के पति की लाश गांव के बाहर बने एक कुएं में मिली
गोरिया अब घर में अकेली थी....साथ में उसकी बूढ़ी सास भी थी न के बराबर
गोरिया अब गांव दारी से भी वास्ता रखने लगी थी
अब उसके सिर से घूंघट हट गया था.....पान भी खाने लगी थी
गांव के लौडो के साथ अब उसे गुटखा खाते
नौरंगी लाल की दुकान पर लोग देखने लगे थे
वो अक्सर गांव की औरतों के साथ चौरा करते देखी जाती
लेकिन घर के बाहर।
गोरिया को घर के अंदर लाने से सब डरती थी..शायद बदनामी
गोरिया के होठों पे लिपिस्टिक का रंग गहरा हो गया था
गांव की औरतें अब उसे छिनाल कहने लगी थी
गांव के लौडे रात का इंतजार करते थे
एक दिन गांव में कानाफूसी थी कि गोरिया कल फलाने के साथ पकड़ी गई
दूसरे दिन गोरिया की लाश पास के तालाब के पास पड़ी थी
रात में गांव के लोगों ने गोली की आवाज....और
गोरियां की चीख भी सुनी थी।

Friday, August 3, 2007

रिपोर्टर का डर.......

वो रिपोर्टर है, एक न्यूज चैनल में
लेकिन डरती है...
उसे डर लग रहा है,
ऐसे बॉस से जिसके बारे में तमाम तरह की बातें
मीडिया के परिवार में फैलती रहती हैं..
सब कहते हैं वो तो बहुत बड़ा चमड़ी बाज है
वो रिपोर्टर ऐसे ठिकाने की तलाश में है
जहां का माहौल थोड़ा ठीक हो...
लेकिन उसे ये बात नामुमकिन लगती है..
शायद वो कुछ दिनों बाद इस खबरों की दुनिया को छोड़ दे
या फिर इस दुनिया दारी से समझौता कर ले....

Thursday, August 2, 2007

जस का तस......

सात साल बाद जब मै अपने कालेज के हॉस्टल गया तो
सब कुछ जस का तस था........सिर्फ चेहरे नये थे
दरवाजे पर टूटे शीशे से आने वाली रोशनी को रोकने के लिए
अजंता की पेटिंग जो मैंने लगाई थी.
वो अभी भी लगी थी, सिर्फ वो धुधली हो गई थी
लेकिन रोशनी अभी भी वहां से नही आ रही थी
लगता है इसी लिए उसे हटाया नही गया...

कालेज की दीवारों पर जो नाम लिखे थे और जो स्केच मैंने बनाये थे
वो भी मैंने देखा, वो भी जस के तस थे
हां उसके बगल में कुछ नाम और लिख दिए गये थे
किसी की याद में
पढ़ कर,मेरी भी कुछ यादें ताजा हो गई थी..
लेकिन सब कुछ जस का तस था।

चौराहे की चाय की दुकान पर
वो लोग जो दिन भर बैठकी लगाते थे
वो सब वही पर मुझे दिखे,
हां उन पुराने चेहरे में कुछ नये चेहरे भी थे
कुछ बदला था तो चाय की दुकान की बनावट
जिसमें बरसाती पन्नी की जगह टिन थी
लेकिन बाकी सबकुछ जस का तस था।

मुझे एहसास हो रहा था...मैं सोच रहा था....
शायद दुनिया ठहर गयी है।